मैं तो उण रे संतन को दास....
दोहा: संत मिल्यां इतना टळे,
काळ जाळ जम चोट ।
शीश नमायां गिर पड़े,
लख पापन की पोट ॥
स्थाई: मैं तो उण रे संतन को हूँ दास,
जिन्होंने मन मार लिया।
जिन्होंने मन मार लिया ॥
मन मार्या तन वश किया जी,
भई भरमना दूर ।।
बाहर तो कुछ दीखत नाँहि,
भीतर भळके वारे नूर ॥
आपा मार जगत में बैठ्या,
नहीं किसी से काम ।
उण में तो कुछ अंतर नाँहि,
संत कहो जी चाहे राम ॥
प्याला पीया प्रेम का जी,
छोड्या जग का मोह ।
म्हाने सतगुरु ऐसा मिळिया,
सहजां ही मुगति होय ॥
नरसी मेहता समरथ सामी,
दिया अमी रस पाय ।
एक बूंद सागर में रळगी,
क्या करे रे यमराज ॥
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