जीवन के दिन चार, ये काठ की (धुन:- नफरत की दुनिया को छोड़)
स्थाई:- आओ मैं तुमको सुनाऊँ, जीवन का ये सार।।
कभी चोरी लालच का करो ना, जीवन में व्यवहार।
जीवन के दिन चार।।
ये काठ की हांडी है आग पर, चढ़े न बारम्बार,
जीवन के दिन चार।।
संतो की वाणी है, वेदों का है ये भेद।
जिस थाली में खाओ, उसमें करो ना छेद।
यह सत्य जो जाना हो गया, उसका बेड़ा पार,
जीवन के दिन चार।।
हरी का भजन तू कर, धन को न बीच में ला।
व्यापार जब करे, छल को न बीच में ला।
तू प्यार की भाषा से जीत ले, सबके मन का प्यार,
जीवन के दिन चार।।
तू मन की बगिया मेंम भक्ति का बो ले बीज।
ले फाक श्रद्धा की, इसको लगन से सींच।
लग जाएगा आँगन में तेरे, खुशियों का अम्बार,
जीवन के दिन चार।।
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