जुग माँहि, गुरु सम्मान नहीं......
दोहा : गुरु बिणजारा ज्ञान रा और लाया वस्तु अमोल।
सौदागर साँचा मिले ,वे सिर साठे तोल।।
स्थाई : जुग में गुरु समान नहीं दाता।
सार शबद सतगुरु जी रा मानो ,सुन
में जाय समाता रे।
जुग में गुरु समान
नहीं दाता।।
वस्तु अमोलक दी म्हारा सतगुरु ,भली सुनाई बांता।
काम क्रोध ने कैद कर
राखो ,मार लोभ ने लाता ,
जुग में गुरु समान
नहीं दाता।।
काल करे सो आज कर ले,फिर दिन आवे नहीं हाथा।
चौरासी में जाय पड़ेला ,भोगेला दिन राता,
जुग में गुरु समान नहीं दाता।।
शबद पुकारि पुकारि केवे है ,कर संतन का साथा।
सेवा वंदना कर सतगुरु
री ,काल नमावे माथा ,
जुग
में गुरु समान नहीं दाता।।
कहत कबीर सुनो धार्मिदासा , मान वचन हम कहता।
पर्दा खोल मिलो सतगुरु
से ,चलो हमारे साथा,
जुग
में गुरु समान नहीं दाता।
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