घट में आणंद व्यापे रे सन्तों (धुन: गुरु बिन घोर अंधेरा)
स्थाई:- घट में आणंद व्यापे रे सन्तों, घर में आणंद व्यापे जी।
सतगुरु दाता आँगण आवे, दिल री दुर्मत भागे हो जी।।
काया ग़ढ में पंछी बोले, मन अहंकार जतावे जी।
साँची ज्योति सतगुरु जग में, अवगुण दूर हटावे ओ जी।।
मानवो जुग रे माँहि डोले, काल प्राण में जावे जी।
माला फेरे जो जान हर री, विजय काल पर पावे हो जी।।
आशा तृष्णा मार हटावे, जनम मरण मिट जावे जी।
साँचा सतगुरु पारस कर दे, जनम मरण मिट जावे ओ जी।।
सतगुरु साँचो दीवो जुग में, ज्ञान ज्योति दर्शावे जी।
रत्नेश्वर कर सतगुरु सेवा, वे ही पार लगावे ओ जी।।
✽✽✽✽✽
यह भजन भी देखे
0 टिप्पणियाँ