स्थाई:- अब मैं गुरु कृष्ण कर जाणूं, दूजा नहीं पिछाणूं।।
करणी रो केसर, शील को चंदन, प्रेम को पाणी आणूं।
सूरत शिला पर खूब घसावूँ , लेकर तिलक चढ़ाऊँ।।
भाव को भोजन प्रीत को प्राणी, ध्यान को धूप लगाऊँ।
सूरत नूरत दोई भरे हाजरी, श्वास को पवन चलाऊँ।।
कृष्ण शबद का अर्थ बतलाऊँ, सोई बात परमाणूं।
पाँच पच्चीस करष कर डारे, सोई कृष्ण सत जाणूं।।
नाथ जलन्धर प्रताप भयो जद, संत शरणागत जाणूं।
देवनाथ गुरु मिलिया अविनाशी, मान कहे यश जाणूं।।
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