सन्तां मन रो केणो ना कीजे.....
दोहा:- गरजे अर्जुन इन्द्र भयो, तो गरजे गोविन्द धेनु चराई।
गरजे द्रोपद्री दासी भई तो गरजे भीम रसोई पकाई।
गरज बड़ी इण लोक में तो गरज बिना कोई आवे न जाई।
कवि गंग कहे सुण शाह अकबर तो गरज से घर गुलाम रह जाई।।
स्थाई:- ओ सन्तां ! मन रो केणो ना कीजे,
ओ साधु भाई ! मन रो केणो ना कीजे।
दव में काठ कितो ही घालो, अग्नि नाँहि पतीजे।
ओ साधु भाई ! मन रो केणो ना कीजे।।मन ही महा अनीति कहीजे, बड़ा-बड़ा भूप ठगीजे।
जोधा जबर हार गया इण सूं , पड्या कैद में सीजे।
ओ साधु भाई ! मन रो केणो ना कीजे।।
इण मन में एक निज मन कहिजे, जिण रो संग करीजे।
ऋषि मुनि इण अन्तर मन से, साहब रे घर दीजे।
ओ साधु भाई ! मन रो केणो ना कीजे।।
मन को मोड़ करे कोय सुगरो, जद थारो मनवो धीजे।
इड़ा पींगला चले जुगत से, सुकमण रो घर लीजे।
ओ साधु भाई ! मन रो केणो ना कीजे।।
जीव पीव री दूरी मेटो, जद थारो मनवा धीजे।
मदन कहे इण मन री मस्ती, भले भाग देखीजे।
ओ साधु भाई ! मन रो केणो ना कीजे।।
✽✽✽✽✽
यह भजन भी देखे
0 टिप्पणियाँ