सायब ने भजो रे गिंवारा...
दोहा: गुरु सेवा जन बंदगी,
अर सत्संग वैराग।
ये चारों जब ही मिले,
पूरण हो ये भाग ॥
स्थाईः सायब ने भजो रे गिंवारा,
मत भूलो रे वारम्वारा ।
ज्यूं जन्म्यां ज्यूं मर जासी,
रे मालिक का लेखा भरणा ।
सायब ने भजो रे गिंवारा,
मत भूलो रे वारम्वारा ।।
बाजीगर डंक बजाया जी,
सब खलक तमाशा आया ।
बाजीगर कला तो समेटी,
जद उड़ गई सकल कमेटी ।
सायब ने भजो रे गिंवारा,
मत भूलो रे वारम्वारा ॥
पार उतरणा थांने चहिजे,
नावड़िया सूं मिलणो ।
नावड़ियो नाव चलावे जी,
थने अमरलोक ले जावे।
सायब ने भजो रे गिंवारा,
मत भूलो रे वारम्वारा ॥
दर्शन करणा थाने चहिजे,
दर्पण मांजतो रेहिजे।
दर्पण में तो वेला रे झाँई,
दर्शन होवे नाँहि ।
सायब ने भजो रे गिंवारा,
मत भूलो रे वारम्वारा ॥
मुक्ति रा फल थने हिजे,
वेलड़िया थूं सींचे।
वेलड़ियां सू वे रे काँई,
जनम मरण सब जाई।
सायब ने भजो रे गिंवारा,
मत भूलो रे वारम्वारा ॥
कबीर सा निज वाणी,
संत वाणी पहचाणी ।
बड़ों रा नहीं परखीजे,
आणी मूरख रो काँहि कीजे ।
सायब ने भजो रे गिंवारा,
मत भूलो रे वारम्वारा ॥
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