बार-बार यूं कयो ब्राह्मणी....
स्थाई: बार-बार यूं कयो ब्राह्मणी,
हुओ सुदामा तैयार।
चावल की पोट लेके,
आयो मोहन के द्वार ॥
पूछे द्वारका जाय,
कन्हैयो कहाँ रहे ।
फाटा कपड़ा देख,
मसखरी सारा करे ।
इतने में एक मिळियो दयालु,
दीनो महल बताय ॥
द्वारपाल जा कयो,
आदमी इक आया ।
फाटा कपड़ा नाम,
सुदामा बतलाया।
सुनते ही अब नंगे पैरों,
दौड़े कृष्ण मुरार ॥
मिळिया गळे लगाय,
सिंहासन बैठायो ।
देख दशा आ दीन,
जीवड़ो दुख पायो ।
आँसू जल से पैर धो रहे,
जग के पालनहार ।।
करी खातरी खूब,
सुदामा शरमायो ।
चावल केरी पोट,
खाक में छुप कायो ।
नजर पड़ी जब कृष्णचन्द्र की,
लीवी भुजा पसार ॥
दोय मूठी खाय,
तीसरी भरने लगे।
रुकमणी पकडूयो हाथ,
नाथ क्या करने लगे ।
तीन लोक दे दियो सांवरा,
हम हो गये बेकार ॥
राख्यो दो दिन चार,
जद फिर विदा कयो ।
मुख से मांग्यो नाँय,
नाँय कुछ हरि दियो ।
चले सोचकर पूछे ब्राह्मणी,
क्या दूंला जवाब ॥
पहुँच्यो नगरी माँय,
झोंपड़ी नहीं मिली ।
महलां ऊपर बैठी,
ब्राह्मणी बुला रही ।
दासी आकर यूं बुलावे,
थारे घर के बार ।।
चकित भये सब देख,
कन्हैयो खूब करी ।
महिमा अपरम्पार,
सुदामा कहे हरी ।
भक्त मण्डली हिलमिल गावे,
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